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________________ 282 जैनधर्मामृत . कहनेका सारांश यह है कि स्वात्मानुभवी जीव बाहरी सभी कार्योंको अन्यमनस्क होकर करता है, क्योंकि उसका उपयोग तो सतत आत्मस्वरूपकी ओर उन्मुख रहता है। उपर्युक्त प्रकारसे स्वात्मानुभव करनेवाले योगीको अपनें देह / का भी भान नहीं रहता किमिदं कीदृशं कस्य कस्मारक्वेत्यविशेपयन् / स्वदेहमपि नावेति योगी योगपरायणः // 41 // अनुभवमें आने वाली वस्तु क्या है, कैसी है; उसका स्वामी __ * कौन है, वह किससे प्रकट होती है और उसकी अवस्थिति कहाँ है ? इस प्रकारके विकल्पोंसे रहित होता हुआ योग-परायण योगी अपने देहको भी नहीं जानता है // 41 // भावार्थ-ध्यान या आत्मानुभवकी दशामें ध्याताके न कोई अन्तरंग विकल्प रहता है और न कोई शरीरादि-सम्बन्धी वाह्य विकल्प रहता है। ज्ञानी जन आत्म-स्वरूपकी प्राप्ति के लिए ही क्यों उद्यम करते है, आचार्य इसका कारण बतलाते हैं-- परः परस्ततः दुःखमात्मैवात्मा ततः सुखम् / ......... .. अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमाः // 42 // . . -: परपदार्थ पर है, अतः उसकी इच्छा करना ही दुख है, और आत्म-पदार्थ अपना ही है, अतः उसकी इच्छा करना सुख है /
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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