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________________ चतुर्दश अध्याय 281 - भावार्थ-पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्ति, ग्लानिया उदासीनता ही स्वात्मानुभूति रूप संवित्तिका प्रधान कारण है और संवित्ति भेद-विज्ञानकी कारण है। . . . . . .. .. .. स्वात्म-संवित्तिके होनेपर आत्माकी अन्तरंग अवस्थाका वर्णन निशामयति निःशेपमिन्द्रजालोपमं जगत् / . . स्पृहयत्यात्मलाभाय गत्वान्यत्रानुतप्यते // 38 // इच्छत्येकान्तसंवासं निर्जनं जनितादरः। / निजकार्यवशास्किञ्चिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम् // 36 // ब्रुवन्नपि न हि ते गच्छन्नपि न गच्छति // . स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति // 40 // जिसे स्वात्म-संवित्ति हो जाती है, उसे यह समस्त जगत् इन्द्रजालके समान दिखाई देने लगता है, वह केवल स्वात्म-स्वरूप . के लाभकी ही अभिलाषा करता है और किसी वस्तुके पानेकी उसके इच्छा नहीं रहती। यदि कदाचित् किसी पदार्थमें उसकी प्रवृत्ति हो जाती है, तो उसे अत्यन्त पश्चात्ताप होता है। मनुष्यों के साथ बैठकर मनोरंजन करनेमें उसे कोई आनन्द नहीं आता: अत एव वह निर्जन एकान्त वासकी इच्छा करता है / जन-संवासमें उसे कोई आदर नहीं रहता इस लिए वह जन-सम्पकसे दूर रहना चाहता. है / यदि कदाचित् निजी कार्यके वशंसे किसीसे कुछ कहना पड़ता है, तो कह कर उसे शीघ्र भूल जाता है। वस्तुतः आत्मस्वरूपमें जिसकी स्थिरता हो जाती है, वह बोलता हुआ भी नहीं बोलता है, चलता हुआ भी नहीं चलता है और. देखता हुआं भी नहीं देखता है // 38-40 // . . . . . . . . . :
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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