________________ स 280. * जैनधर्मामृत अभ्यासका निरूपण अभवञ्चित्तविक्षेप एकान्ते तत्वसंस्थितिः / अभ्यस्येदभियोगेन योगी तत्त्वं निजात्मनः // 35 // .. जिसके चित्तमें राग-द्वेषादिरूप किसी प्रकारका विक्षेप न हो, जो जन-सम्पर्कसे रहित एकान्त शान्त स्थान पर अवस्थित हो और हेय-उपादेयरूप तत्त्वके विषयमें जिसकी निश्चल बुद्धि हो, ऐसा योगी संयमी जितेन्द्रिय पुरुष अभियोगसे अर्थात् आलस्य, निद्रा और प्रमाद आदिको दूर कर अपने आत्माके यथार्थ स्वरूपकी भावना करे // 35 // ___भावार्थ-चित्त-विक्षेपसे रहित होकर और एकान्त स्थानमें वैठकर आत्माके वीतराग शुद्ध स्वरूपकी भावना करनेको अभ्यास कहते हैं / इस अभ्यासके द्वारा ही योगी जन मोक्ष-सुखके कारणभूत भेद-विज्ञानको प्राप्त करते हैं। संवित्तिका स्पष्टीकरण . . . यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् / तथा तथा न रोचन्ते विपयाः सुलभा अपि // 36 // यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि / तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्वमुत्तमम् // 37 // .. . संवित्ति अर्थात् आत्मानुभूति या स्वानुभवमें जैसे जैसे उत्तम तत्त्व अर्थात् आत्माका शुद्ध स्वरूप सम्मुख आता जाता है, वैसे वैसे ही सहज सुलभ भी इन्द्रियों के विषय अरुचिकर लगने लगते हैं। और जैसे जैसे सहज सुलभ भी इन्द्रिय-विषय अरुचिकर लगने लगते . हैं, वैसे वैसे ही स्वानुभवमें आत्माका शुद्ध स्वरूप सामने आता जाता है // 36-37 //