________________ 278 जैनधर्मामृत __मोहवश मैंने पाँचों इन्द्रियोंके विषयभूत रूप-रस-गन्ध-स्पर्शात्मक सभी पुद्गल जब बार-बार भोग-भोग कर छोड़े हैं, तब आज उच्छिष्ट भोजनके तुल्य उन्हीं पुदलोंमें मुझ ज्ञानीकी अभिलाषा . कैसी ? // 31 // भावार्थ हे आत्मन् , यदि भुक्तोज्झित भी विषयों में तेरी अभिलाषा होती है, तो यह बड़े दुःख और लज्जाकी बात है, तुझे इनकी अभिलाषा नहीं होनी चाहिए / संसारी जीवोंको स्व-उपकार करनेका उपदेश परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव / उपकुर्वन् परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् // 32 // हे आत्मन् , तू देहादि परवस्तुका उपकार छोड़कर स्वात्माके उपकारमें तत्पर हो / जो शरीरादिक प्रत्यक्षमें ही शत्रुके समान तेरे अनुपकारी हैं, उनका सेवा-सुश्रूषारूप उपकार करता हुआ तू सामान्य लोगोंके समान अज्ञ वन रहा है, यह अति दुःखकी बात है // 32 // स्व-परके अन्तरका ज्ञाता ही मोक्षसुखका भोक्ता होता है गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्तः स्व-परान्तरम् / जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरन्तरम् // 33 // जो पुरुष गुरुके उपदेशसे, अभ्याससे और संवित्ति अर्थात् स्वानुभवसे स्व और परके अन्तर ( भेद ) को जानता है वही पुरुष निरन्तर मोक्षसुखका अनुभव करता हैं // 33 // . . .