________________ 277 चतुर्दश अध्याय . . . धन-कुटुम्वादिसे ममत्व छुड़ानेके लिए उपदेश दुःखसन्दोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम् / त्यजाम्येनं ततः सर्व मनोवाक्कायकर्मभिः // 26 // . कुटुम्ब, धन और शरीरादिके संयोगसे ही देहियोंको ( शरीरधारी संसारी प्राणियोंको ) इस संसारमें सहस्रों दुःख भोगने पड़ते हैं / इसलिए मैं मन-वचन-कायसे इन सर्व परपदार्थों को छोड़ता हूँ अर्थात् उनमें ममत्वभावका परित्याग करता हूँ // 29 // * शरीरकी बाल-वृद्धादि दशाओंके होने पर तथा व्याधि और मृत्युके आनेपर ज्ञानी जीव कैसा विचार करता है न मे मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा ? नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले // 30 // . जब मैं अजर-अमर हूँ, तब मेरी मृत्यु नहीं हो सकती, फिर उसका भय क्यों हो ? जब मुझ चैतन्यमूर्तिके कोई व्याधि नहीं हो सकती, तब उसकी व्यथा मुझे क्यों हो ? वास्तवमें मैं न वाल हूँ, न वृद्ध हूँ और न युवा हूँ। ये सब अवस्थाएँ तो पुद्गलमें होती हैं। फिर इन अवस्थाओंके परिवर्तनसे मुझे रंचमात्र भी दुखी नहीं होना चाहिए // 30 // '. शारीरिक विषय-भोगोंकी ओर दौड़नेवाली मनोवृत्ति या विषयाभिलाषाकों दूर करनेके या रोकनेके लिए ज्ञानी जीव विचारता है- . . . . . . . मुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः / उच्छिष्टेप्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ? // 31 // .