________________ 276 . जैनधर्मामृत भावका चिन्तवन करें; अर्थात् पर पदार्थोंमें ममताका त्याग करें // 26 // पर पदार्थों में ममता या रागभाव ही वन्धका कारण है रागी वध्नाति कर्माणि वीतरागी विमुञ्चति / जोवो जिनोपदेशोऽयं संक्षेपाद् वन्धमोक्षयोः // 27 // रागी जीव कौंको बाँधता है और वीतरागी कांसे विमुक्त होता है / संक्षेपमें जिनदेवने बन्ध और मोक्षका इतना ही उपदेश * दिया है // 27 // वीतरागी होनेका उपाय एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः। वाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा // 28 // मैं सदाकाल एक हूँ ( परके संयोगसे रहित हूँ,) निर्मम हूँ ( यह परद्रव्य मेरा है और मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकारके ममत्वभावसे रहित हूँ ), शुद्ध हूँ ( निश्चयनयकी अपेक्षा द्रव्यकर्म और भावकमसे रहित हूँ), ज्ञानी हूँ ( स्व-परके भेद-विज्ञानरूप विवेक-ज्योतिसे प्रकाशमान हूँ) और योगीन्द्रगोचर हूँ ( केवली-श्रुतकेवली आदि महान् योगियोंके ज्ञानका विषय हूँ)। कर्म-संयोगसे प्राप्त वाहरी सभी पदार्थ मेरेसे सर्वथा भिन्न हैं, वे त्रिकालमें भी मेरे नहीं हो सकते // 28 // . भावार्थ--इस प्रकारकी परपदार्थोंसे निर्ममत्वरूप निर्मल भावनासे जीव वीतरागी बनता है और कर्मोसे छुटकारा पाता है।