________________ 275 चतुर्दश अध्याय अपने ही द्वारा अपनेमें अवस्थित होकर अपने स्वरूपका ध्यान करे // 24 // . भावार्थ-आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए बाह्य किसी भी वस्तुके ग्रहणकी आवश्यकता नहीं है, अपितु उनके त्यागकी हो आवश्यकता है। जब यह आत्मा चारों ओरसे अपनी प्रवृत्ति हटाकर, इन्द्रियों के विषय और मनकी चंचलताको भी रोककर अपने आपमें स्थिर होनेका प्रयत्न करता है, तभी उसे आत्म-स्वरूपकी प्राप्ति होती है। आत्मस्वरूपकी उपलब्धिका लाभ परीपहाद्यविज्ञानादानवस्य निरोधिनी। जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा / / 25 / / __ अध्यात्मयोगसे अर्थात् आत्मस्वरूपकी अनुभूति या उपलब्धिसे काँका तुरन्त आस्रव रोकनेवाली महानिर्जरा होती है; क्योंकि उस अध्यात्म-दशामें अवस्थित जीवके परीषह-उपसर्ग आदिके कष्टोंका कुछ भी भान नहीं होता है / / 25 / / जीवके कर्मोंसे बँधने और छूटनेका कारण बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् / .. . . तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् // 26 // स्त्री-पत्र-धनादिमें ममता रखनेवाला जीव काँसे बँधता है और उनमें ममता भाव नहीं रखनेवाला जीव कर्मोंसे छूटता है / इसलिए ज्ञानी जनोंको चाहिए कि वे सर्व प्रकारके प्रयत्नके द्वारा निर्ममत्व रण