________________ 274 जैनधर्मामृत इसलिए संसारमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो शरीर और जीव / इन दोनोंकी उपकारक हो / अतएव जो वास्तवमें आत्माका उपकार करना चाहते हैं, उन्हें कुटुम्ब, धन और शरीरसे मोह छोड़ना ही पड़ेगा। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आत्मा ऐसी क्या वस्तु है, .. जिसके उपकारके लिए कुटुम्ब, धन और शरीरसे मोहका छोड़ना आवश्यक है ? आचार्य उसका उत्तर देते हुए आत्माका स्वरूप निरूपण करते हैं स्वसंवेदनसुव्यक्तस्तनुमानो निरत्ययः / अनन्तसौख्यवानारमा लोकालोकविलोकनः // 23 // यह आत्मा स्वसंवेदन-गन्य है, शरीर-प्रमाण है, अविनश्वर है, अनन्त सौल्यवान् है और लोक-अलोकका अवलोकन करनेवाला है // 23 // भावार्थ-'अहम् अस्मि' इस प्रकारकी प्रतीतिको स्वसंवेदन कहते हैं। प्रत्येक जीव इस स्वसंवेदनके द्वारा अपनी आत्माका अनुभव कर रहा है। और वह आत्मा अन्यत्र कहीं नहीं, इसी शरीरमें सर्वाङ्ग-व्याप्त है। अविनाशी है, अनन्त ज्ञान, दर्शन और दुःखका भण्डार है / इसकी प्राप्ति बाहरी वस्तुओंका परित्याग किये विना नहीं हो सकती। आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका उपाय संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतसः / आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम् // 24 // : इन्द्रिय-समुदायका नियमन कर और चित्तको एकाग्रकर आत्मा