________________ चतुर्दश अध्याय 273 ____ उसे अपरिमित कालतक भव-भ्रमण करना पड़ेगा / अतः स्वयं ही इनको छोड़नेमें जीवका कल्याण है। . . जो लोग अहर्निश शरीरके लालन-पालन एवं संप्रसाधनमें ही संलग्न रहते हैं, आचार्य उन्हें सम्बोधन करते हुए कहते हैं• भवन्ति प्राप्य यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि। . . . स कायः सन्ततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा // 21 // - जिसका सङ्गम पाकर शुचि पदार्थ भी अशुचि हो जाते हैं और जो सदा ही अपायरूप है, अर्थात् भूख-प्यासकी बाधासे युक्त है, और विनाशीक और सन्ताप-कारक है, उस शरीरकी अभ्यर्थना करना वृथा है // 21 // .. . . . . . . . जो लोग भोगोपभोगोंको भोगते हुए शरीरका भी उपकार करना चाहते हैं और साथ ही आत्माको भी उपकार करना चाहते . हैं, आचार्य उनके लिए उपदेश देते हुए कहते हैं-- . . . . . ..... यजीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् / ..: . . यद्देहस्योपकाराय तजीवस्यापकारकम् // 22 // : .. ..... जो वस्तु जीवकी उपकारक है, वह देहकी अपकारक है और जो वस्तु देहकी. उपकारक है, वह जीवकी अपकारक है // 22 // .. ... भावार्थ-जिस तपश्चरणादिके अनुष्ठानसे कर्म-मलं दूर होनेके कारण जीवका उपकार होता है, उसके द्वारा तो शरीरका अपकार ही होता है; क्योंकि, तपश्चरणादि करनेसे शरीर कृश हो जाता है। तथा जिस भोगोपभोगादिके सेवनसे शरीरका उपकार होता है, उससे जीवका अपकार होता है; क्योंकि भोगोपभोगोंका सेवन राग-द्वेषका वर्धक और पापकर्मका बन्धक है।