________________ ર૭ર जैनधर्मामृत बिना नहीं होता है। अतः धन कमाकर पीछे उसका विनियोग : अच्छे कार्योंमें करनेकी भावना रखना भी कल्याणकारी नहीं है। जो लोग धन कमाकर भोगोपभोग सेदनकी अभिलाषा रखते हैं, आचार्य उन्हें लक्ष्य करके कहते हैं- .. आरम्भे तापकान्प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् / ... __ अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः // 16 // : : जो काम-भोग प्राप्त होनेके पूर्व ही सन्ताप उत्पन्न करते हैं, प्राप्त होने पर अतृप्तिके उत्पादक हैं और अन्तमें जिनका परित्याग करना अत्यन्त कठिन है, ऐसे काम-भोगोंको कौन बुद्धिमान् सेवन करेगा ? // 19 // . __ अब आचार्य उपदेश देते हैं कि ये सांसारिक विषय-भोग किसीके भी पास सदा रहनेवाले नहीं हैं, एक न एक दिन अवश्य छूटनेवाले हैं, अतः स्वयं ही इनका परित्याग करना श्रेयस्कर है भवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विपयाश्चिरम्। .. स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसृतिरन्यथा // 20 // यदि ये इन्द्रियोंके विषय चिरकाल तक रह करके भी अवश्य ही नष्ट होते हैं, तो इनका स्वयं ही त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि स्वयं त्याग करनेसे मुक्ति प्राप्त होगी, अन्यथा संसारमें परिभ्रमण करना पड़ेगा // 20 // भावार्थ-यदि विषय-भोगोंसे रागभाव छोड़कर स्वयं ही उन्हें छोड़ दियो जायगा,तो उसका संसारसे शीघ्र बेड़ा पार हो जायंगा। / जो स्वयं उनका त्याग नहीं करेगा, उनसे विषय-भोग तो एक न एक दिन अवश्य छूटेंगे ही। किन्तु स्वयं न छोड़नेके फलस्वरूप ..