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________________ पा 9 // 6 // __चतुर्दश अध्याय 271 . दुरय॑नासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना / ..! स्वस्थम्मन्यो जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिपा // 16 // . ..... जिस प्रकार ज्वरसे पीड़ित कोई पुरुष ज्वरके सन्तापको शान्त करनेके लिए घृत-पान करके अपनेको स्वस्थ माने, पर वस्तुतः वह स्वस्थ नहीं है। उसी प्रकार जो धनादिक अत्यन्त दुःखसे अर्जन किया जाता है तथा जिसका संरक्षण और भी अधिक कष्ट-प्रद है एवं जो नियमसे विनश्वर है, आश्चर्य है कि मनुष्य उस धनादिक __ की प्राप्तिसे ही अपनेको सुखी मानता है // 16 // ... कुछ लोग दान-पुण्यादि करनेके लिए धनका * संचय करना उत्तम मानते हैं, आचार्य उन्हें सन्बोधन करते हुए कहते हैं . . त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः सञ्चिनोति यः / ....... स्वशरीरं स पङ्केन स्नास्यामीति विलिम्पति // 17 // जो निर्धन पुरुष दानके लिए और देवपूजादि पुण्यकार्यके लिए धनका संचय करता है, वह ठीक उस मनुष्यके समान हास्यका पात्र है, जो स्नान करूँगा' यह सोचकर अपने निमल शरीरको पङ्क (कीचड़) से लिप्त करता है / / 17 // . . . . . . ... : शुद्धैर्धनैर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः। ... ... : न हिं. स्वच्छाग्छभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः // 18 // जिस प्रकार स्वच्छ, निर्मल एवं मिष्ट जलसे समुद्र कदाचित् भी परिपूर्ण नहीं होते, अर्थात् भरे नहीं दिखाई देते, उसी प्रकार शुद्ध उपायोंसे कमाये गये धनके द्वारा सज्जनोंकी सम्पदा भी नहीं . बढ़ती है // 18 // . . . . . . . भावार्थ---यतः विपुल धनका संचय अनीति-मार्गके आलम्बन
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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