________________ 270 जैनधर्मामृत .. और हे आत्मन् , राग-द्वेषसे प्रेरित होकर ही तो यह जीव संसारमें घूम रहा है रागद्वेपद्वयोदीर्वनेत्राकर्षणकर्मणा। ___ अज्ञानात्सुचिरं जीवः संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ // 14 // ..." राग-द्वेषरूपी दो दीर्घ डोरियोंसे बँधी हुई मन्थानीके आकर्षण कर्मके समान यह जीव अज्ञानके द्वारा चिरकालसे संसाररूप समुद्रमें परिभ्रमण करता आरहा है // 14 // ___ भावार्थ:-जिस प्रकार दहीको विलोनेवाली मन्थानी दो रस्सियोंके द्वारा आगे-पीछे खींची जानेपर दहीके मटकेमें घूमती . रहती है, उसी प्रकार यह संसारी जीव भी राग-द्वेष रूपी दो रस्सियोंसे आकर्षित होता हुआ संसाररूप समुद्र में निरन्तर परिभ्रमण करता रहता है। और हे आत्मन् ! राग-द्वेष सदा साथ रहते हैं ; क्योंकि यत्र रागः पदं धत्ते द्वेषस्तत्रेति निश्चयः / उभावेतौ समालम्व्य विक्रमत्यधिकं मनः // 15 // : जहाँ पर राग पद ( कदम ) रखता है, वहाँ पर द्वेष नियमसे .. आकर खड़ा हो जाता है / और इन दोनोंका आश्रय पाकर मन अत्यधिक चंचल होकर क्षोभको प्राप्त होता है // 15 // . भावार्थ-जहाँ राग होगा, वहाँ द्वेष अवश्य आ जायगा, इसलिए द्वेषसे बचनेका उपाय यही है कि किसीसे राग नहीं किया जाय। . इस प्रकार आचार्यः स्त्री-पुत्रादिसे मोह छुड़ाकर अब धनादिसे भी मोह भावको छुड़ानेके लिए उपदेश देते हैं...... ..