________________ 266 - चतुर्दश अध्याय चास्तविक सुख नहीं है, किन्तु वासनामात्र ही है: यथार्थमें तो यह दुःखरूप ही है / तथा ये पाँचों इन्द्रियोंके भोग आपत्तिमें रोगके समान प्राणीको सदा उद्विग्न करते हैं। इसलिए मुझे इनसे दूर ही . रहना चाहिए // 11 // : . . . . . . . :- उक्त प्रकारसे आचार्य इन्द्रिय-विषयोंसे विरक्ति उत्पन्न करके अब घर-कुटुम्बादिसे मोह दूर करनेके लिए उपदेश देते हैं वपुहं धनं दाराः पुत्रा मित्राणि शत्रवः / .. सर्वथाऽन्यस्वभावानि मूढः स्वानि प्रपद्यते / / 12 / / ...: :-... यह शरीर, घर, धन, स्त्री, पुत्र, मित्र और शत्रु सभी पदार्थ सर्वथा भिन्न. स्वभाववाले हैं, किन्तु यह मूढ़ प्राणी इन्हें अपना मानता है // 12 // . . . . . . . इसी वातको आचार्य दृष्टान्त-द्वारा स्पष्ट करते हैं दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसन्ति नगे नगे। स्व-स्वकार्यवशाधान्ति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे // 13 // ....... जिस प्रकार पक्षिगण नाना दिग्देशान्तरोंसे आकर सायंकालके समय वृक्षोंपर बस जाते हैं और प्रातः काल होते ही सब अपनेअपने कार्यसे अपने-अपने देशों और दिशाओंमें चले जाते हैं। . उसी प्रकार ये संसारी जीव विभिन्न गतियोंसे आकर एक कुटुम्बमें जन्म लेते हैं और आयु पूरी होने पर अपने-अपने कर्मोदयके अनुसार अपनी-अपनी गतियोंको चले जाते हैं। जब संसारकी यह / दशा: है तब हे. आत्मन् , इनमें मोह कैसा ? और उनमें इष्टअनिष्टकी कल्पना करके राग-द्वेष कैसा ? // 13 //