________________ 266 जैनधर्मामृत गायकके मधुर मनोहर संगीत, वाद्य-रव और स्त्रियोंके आभूपणोंके शब्दादिसे जिसका हृदय श्रोत्रेन्द्रियके विपयमें आसक्त है, वह हिरणके समान विनाशको प्राप्त होता है // 9 // भावार्थ-जैसे हिरण वहेलियाके मधुर संगीतमें मस्त होकर और उसके जालमें फंसकर अपना सर्वनाश कर लेता है / उसी प्रकार कर्णेन्द्रियके विषय-लोलुप स्त्री-पुरुष भी अपने जीवनका विनाश कर डालते हैं अर्थात् उन्हें आमोद-प्रमोदके सिवाय अपने कर्तव्यका कुछ भी भान नहीं रहता और अकस्मात् कालके गालमें चले जाते हैं। एकैकविपयसङ्गाद् रागद्वेपातुरा विनष्टास्ते / किं पुनरनियतात्मा जीवः पञ्चेन्द्रियवशातः // 10 // ऊपर कहे हुए हिरण आदिक तो एक-एक इन्द्रियके विषयके संगसे पीडित होकर विनाशको प्राप्त होते हैं। किन्तु जो पाँचों ही इन्द्रियोंके विषयोंसे पीडित हैं, उनके वशंगत हैं, अनियत मनोवृत्तिवाले हैं और राग-द्वेषसे 'आतुर हैं, उनका कहना ही क्या है ? // 10 // भावार्थ-जब हिरण आदि प्राणी एक-एक इन्द्रिय-विषयके निमित्तसे विनष्ट होते देखे जाते हैं, तो हम पञ्चेन्द्रिय मनुष्य तो पाँचों ही इन्द्रियोंके विषयोंमें रात-दिन निमग्न हो रहे हैं, हमारी क्या दशा होगी ? ऐसा विचार कर हमें इनसे बचना चाहिए। .. वासनामात्रमेवैतत्सुखं दुःखं च देहिनाम् / तथा झुद्वेजयन्त्येते भोगा रोगा इवाऽऽपदि // 11 // ज्ञानी पुरुष विचारता है कि यह इन्द्रिय विषय-जनित सुख