________________ चतुर्दश अध्याय . 267 ....... स्नानागारागवर्तिकवर्णकधूपाधिवासपटवासैः। . . - गन्धभ्रमितमनस्को मधुकर इव नाशमुपयाति // 7 // .. .. स्नान करनेके सुगन्धित अङ्गराग (उबटन-साबुन आदि), धूप, अगरवत्ती, सुगन्धित लेप एवं आधुनिक नाना प्रकारके सुरभित प्रसाधनोंसे तथा सुगन्धित वस्त्रोंके द्वारा गन्धमें आसक्त चित्त हुआ प्राणी. कमल-गन्धमें आसक्त भ्रमरके समान. विनाशको प्राप्त होता है // 7 // . . .. .. .. भावार्थ-जिस प्रकार भौंरा कमलकी सुमन्धसे आकृष्ट हो उसके भीतर बैठ कर उसकी सुगन्धिका पान किया करता है और सूर्यास्तके साथ कमलके बन्द हो जानेपर उसीमें बन्द होकर मारा जाता है। इसी प्रकार संसारके प्राणी घ्राण-इन्द्रियके वशंगत होकर नाना प्रकारके कष्टोंको भोगते हैं। : गतिविभ्रमेङ्गिताकारहास्यलीलाकटाक्षविक्षिप्तः / रूपावेशितचक्षुः शलभ इव विपद्यते विवशः // 8 // .. प्रिय जनोंके सुन्दर गमन, नृत्य, विभ्रम, संकेत, आकार, हास्य, लीला और कटाक्ष-विक्षेपसे विक्षिप्त हुआ प्राणी रूपपर आसक्त दृष्टिचाले पतङ्गोंके समान विवश होकर विनाशको प्राप्त होता है // 8 // . . . . . . . . . . . . : . भावार्थ-जिस प्रकार पतङ्ग दीप-शिखा- पर मोहित होकर उसीमें जल मरता है, उसी प्रकार चक्षुरिन्द्रियके वश होकर रूपपर मुग्ध हुए स्त्री-पुरुष भी विनाशको प्राप्त होते हैं। . . . कलरिमितमधुरगान्धर्वतूर्ययोपिद्-विभूषणरवाद्यः। . . . . : श्रोत्राववन्द्वहृदयो हरिण इव विनाशमुपयाति // ! : ..