________________ जैनधर्मामृत शयनासनसंवाहनसुरतस्नानानुलेपनासक्तः / . स्पर्शत्याकुलितमतिर्गजेन्द्र इव बध्यते मूढः // 5 // सुन्दर शय्या, कोमल आसन, अंग-मर्दन, संभोग, स्नान, और अनुलेपनमें आसक्त हुआ मूढ़ प्राणी हथिनीके शरीरका स्पर्श करनेके लिए व्याकुलित चित्तवाले गजेन्द्रके समान बन्धको प्राप्त होता है // 5 // __भावार्थ-जैसे वनमें स्वच्छन्द विचरनेवाला गजराज स्पर्शनइन्द्रियके विषयमें आसक्त होकर गड्ढेके ऊपर खड़ी की गई नकली हथिनीको ही असली मान कर उसके साथ विषय-सेवन करनेके लिए उसकी ओर दौड़ता है और गड्डेमें गिरकर महान् दुःखको पाता है तथा अन्तमें मनुष्योंके द्वारा बाँध लिया जाता है, इसी प्रकार स्पर्शन-इन्द्रिय जनित सुखके फेरमें पड़कर संसारके सभी प्राणियोंको अनन्त दुःख भोगने पड़ते हैं। . मिष्टान्नपानमांसोदनादिमधुररसविषयगृद्धात्मा। गलयन्त्रपाशबद्धो मीन इव विनाशमुपयाति // 6 // मिष्ट अन्न-पान, मांस, शालि-ओदन एवं अनेक प्रकारके मधुर रसवाले रसना-इन्द्रियके विषयोंमें आसक्त हुआ प्राणी गलयन्त्र (बंसी) या पाश (जाल) में बद्ध मीनके समान विनाशको प्राप्त होता है // 6 // . भावार्थ-जैसे वंसीमें लगे मांस-खण्ड या आटेकी गोलीको खानेके लोभमें मछली मारी जाती है, उसी प्रकार यह संसारी प्राणी रसना-इन्द्रियके विषयके वश होकर नाना प्रकारके दुःखोंको प्राप्त होता है। /