________________ चतुर्दश अध्याय 265 सुयोग मिला है, तबतक धर्म-साधनका प्रयत्न करना ही चाहिए और इसमें एक क्षणका भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। . .. धर्म-साधनके लिए उद्यत होता हुआ ज्ञानी विचारता है.... कर्मोदयाद् भवतिर्भवगतिमूला शरीरनिर्वृत्तिः। ...... - देहादिन्द्रियविपया विषयनिमित्ते च सुख-दुःखे // 3 // कर्मके उदयसे जीवको मनुष्य-पशु आदिकी पर्यायोंमें जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेनेसे शरीरको धारण करना पड़ता है। शरीरमें इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियोंमें अपने-अपने विषयोंको ग्रहण करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है और विषयोंके ग्रहण करनेके निमित्तसे सुख दुःख दोनों उत्पन्न होते हैं // 3 // ...... .. किन्तु यह प्राणी केवल सुखका ही उपभोग करना चाहता है और दुःखसे डरता हैं। पर मोह-वश जिस कार्यको भी करता है, उससे दुःख ही पाता है दुःखविट् सुखलिप्सुमोहान्धत्वाददृष्टगुणदोपः। . यां यां करोति चेष्टां तया तया दुःखमादत्ते // 4 // - दुःखसे दूर भागनेवाला और. सुख चाहनेवाला यह प्राणी मोहसे अन्धा होकर भले-बुरेका विचार न करके जिस-जिस चेष्टाको करता है, उस उससे वह दुःखको पाता हैं // 4 // ... . ___ अनादि-संस्कारके वशसे यह प्राणी पाँचों इन्द्रियोंके विषयों में अत्यन्त आसक्त हो रहा है और निरन्तर सभी इन्द्रियोंके विषयोंको भोगते हुए भी उनसे तृप्त नहीं होता / अतः आचार्य उसे सम्बोधन करते हुए क्रमशः, एक-एक इन्द्रियके विषय-सेवनसे महान् दुःखं . भोगनेवाले प्राणियोंका उदाहरण उपस्थित करते हैं