________________ चतुर्दश ध्याय उक्त प्रकारसे जिसने सप्त तत्त्वोंका स्वरूप समझा है और रत्नत्रय-धर्मकी महत्ताका अनुभव किया है, वह संसारके स्वरूपसे परिचित पुरुष विचारता है भवकोर्टीभिरसुलभं मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादो मे। न च गतमायुर्भूयः प्रत्येत्यपि देवराजस्य / / 1 / / . संसारमें कोटि-कोटि जन्म धारण कर लेने पर भी नहीं प्राप्त होनेवाला यह अति दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर मेरे यह प्रमाद कैसा ! अहो, देवराज इन्द्रकी भी बीती हुई आयु पुनः लौटकर नहीं आती.! // 1 // यतः बाहरी वैभव क्षण-भंगुर है, अतः मुझे आत्म-हितके कार्यमें उद्यम करना ही चाहिए आरोग्यायुर्वलसमुदयाश्चला वीर्यमनियतं धर्मे / तल्लब्ध्वा हितकार्ये मयोद्यमः सर्वथा कार्यः // 2 // आरोग्य, आयु, बल-वीर्य और धन-धान्यादिका समुदाय ये सभी चञ्चल हैं, अनियत एवं क्षण-भंगुर हैं। जबतक इन सबका सुयोग प्राप्त है, तबतक आत्म-हितके कार्यरूप धर्ममें मुझे सर्व प्रकारसे उद्यम करना चाहिए // 2 // . . भावार्थ-नीरोगता सदा नहीं रहती, आयु प्रतिक्षण नष्ट हो रही है, बल-वीर्य भी स्थायी नहीं हैं और यह धन-वैभव तो कभी किसीके स्थिर नहीं रहा है। अतः जबतक मुझे उक्त सर्व सामग्रीका