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________________ चतुर्दश अध्याय : संक्षिप्त सार 263 आत्माको सम्बोधन करता है कि 'हे आत्मन् , देख-ये हस्ती, मीन, भ्रमर, पतङ्ग और मृगादि प्राणी एक एक इन्द्रियके वशमें पड़कर अपना सर्वनाश करते हैं, तो पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंमें रातदिन मग्न रहने वाला तू किन-किन दुःखोंको प्राप्त नहीं होगा ? जिस धनकी प्राप्तिके लिए तू अनेक महा दुःखोंको सहता है, वह भी जीवन भर संरक्षण आदिकी चिन्ताओंसे दुःख ही देता रहता है, अतः उसकी तृष्णाको तू छोड़। इत्यादि प्रकारसे वह संसार, देह, भोग और धनादिकी तृष्णासे विरक्त होकर. आत्म-ध्यानकी ओर अपनी मनोवृत्तिको लगाता है। ज्यों-ज्यों वह आत्मचिन्तन करता है, त्यों-त्यों. उसे आत्मानुभूति होने लगती है और तब उसे यह संसार नीरस और दुःखमय प्रतिभासित होने लगता है। धीरे-धीरे उसकी आत्मिक शान्ति बढ़ती जाती है और वह आत्मिक तेजसे सम्पन्न होता जाता है। इस ध्यानकी अवस्थामें उस योगीके जो परम आनन्द प्राप्त होता है, वह वचनोंसे अवर्णनीय है / इस आत्मिक आनन्दमें अवस्थित रहते हुए योगी कोटिकोटि भव-सञ्चित; कर्मोंको क्षणमात्रमें भस्म कर देता है और वह स्वयं आत्मासे परमात्मा बन जाता है। संसारी प्राणी आत्मज्ञानको प्राप्त कर किस प्रकार आत्मासे परमात्मा बन जाता है, यह बात इस अध्यायमें बतलाई गई है और यही जैनधर्मका मर्म या रहस्य है। जैनधर्मके इस अमृतोपम रसका पान कर आज तक अगणित 'जीवोंने अजर-अमर शिवपद प्राप्त किया है और जो इसका पान करेंगे, वे अजर-अमर पदको प्राप्त होंगे। . .... .. ... ... ... ... ...
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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