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________________ 0 चतुर्दश अध्याय : संक्षिप्त सार . ___ जो पुरुप ऊपरके अध्यायोंमें निरूपण किये गये सातों तत्त्वों का श्रद्धान कर और उन्हें भले प्रकार जानकर अपनी शक्तिके अनुसार श्रावक-व्रत या मुनि-व्रतको धारण करता है; अथवा जो . परिस्थितियोंसे विवश होकर किसी भी व्रतादिको धारण करने में अपने आपको असमर्थ पाता है, वह भी संसार, देह और भोगोंसे विरक्ति उत्पन्न करनेके लिए और गृहीत व्रतोंकी दृढ़ताके लिए संसारकी अनित्यताका, इन्द्रिय-विषयोंकी निःसारताका और धनवैभवादिकी चंचलताका विचार करता है और उन विचारों के प्रभाव से अपने भीतर चारित्रको धारण करनेकी शक्ति उत्पन्न करता है। क्योंकि, पूर्ण चारित्रके धारण किये विना ध्यान या समाधिकी सिद्धि सम्भव नहीं है / पुनः आत्माके निःसङ्गत्वकी भावनाको दृढ़ करने के लिए ज्ञान-दर्शनादि गुणोंका स्वरूप-चिन्तन करता है और विचार करता है कि मैं तो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यका स्वामी हूँ, यह शरीर और उसके सम्बन्धी सर्व पदार्थ मेरेसे सर्वथा भिन्न हैं, न वे कभी मेरे स्वरूप हो सकते हैं और न मैं कभी उनके स्वरूप हो सकता हूँ, इत्यादि विचारोंके द्वारा वह संसारके सर्व पदार्थोंसे आत्माके भिन्नत्वकी भावना करताः .. है और साथ ही जिन इन्द्रिय-विषयोंकी ओर .यह चित्त निरन्तर दौड़ता है, उनके स्वरूपका भी चिन्तवन करता है और अपनी
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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