________________ त्रयोदश अध्याय 261 सिद्धोंके सुखसे दी जाय, इसी कारण उनके सुखको निरुपम कहा गया है // 10 // .. .. जन्मजरामयमरणः शोकैर्दुःखैभयश्च परिमुक्तम् / निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिप्यते नित्यम् // 11 // वह निर्वाण, जन्म-जरा-मरण, रोग-शोक, दुःख और भयसे परिमुक्त है, वहाँ आत्माका - शुद्ध सुख है और वह नित्य परम कल्याणरूप कहा गया है // 11 // .. ............... विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थ्यप्रसादतृप्तिशुद्धियुजः। ..... निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् // 12 // ... - वे सिद्ध जीव ज्ञान, दर्शन, शक्ति, स्वास्थ्य, आनन्द, तृप्ति और परम शुद्धि से मुक्त होकर निरतिशय, मर्यादातीतकाल तक निःश्रेयस सुखका उपभोग करते हैं // 12 // काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लच्या। .. उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटुः // 13 // / * यदि संसारमें एकवार त्रिलोकको चल-विचल करनेमें समर्थ उत्पात भी हो जावे, (जो कि असम्भव है) तो भी और सैकड़ों कल्पकालोंके बीत जाने पर भी सिद्ध जीवोंके कोई विकार होना सम्भव नहीं है, अर्थात् वे जिस रूपमें आज' मुक्त हुए हैं, 'उसी रूपमें अनन्तानन्त कालतक रहेंगे // 13 // * मोक्षतत्त्वकी विशेष जानकारीके लिए मोक्ष पाहुड और तत्त्वार्थसूत्रके दशवें अध्यायकी संस्कृत-हिन्दीकी टीकाओंको देखना चाहिए। . इस प्रकार मोक्षतत्त्वका वर्णन करनेवाला तेरहवाँ : .. अध्याय समाप्त हुआ।