________________ 260 .. जैनधर्मामृत. .. विशेषार्थ-पूर्वके अभ्याससे जिस प्रकार कुंभकारका चक्र लकड़ी के हटा लेने पर भी घूमता ही रहता है उसी प्रकार यह आत्मा भी .. कब मुक्त बनूँ , कब सिद्धालयमें पहुँचूँ' इत्यादि प्रकारके संस्कारके कारण यह मुक्त जीव * शरीरसे छूटते ही ऊपरको चला जाता है। मिट्टीसे लिप्त घड़ा जैसे पहले पानीमें डूवा रहता है और मिट्टीके डर होते ही ऊपर आ जाता हैं, इसी प्रकार कर्म रूप मृत्तिकासे मुक्त होते ही यह जीव ऊपर चला जाता है / एरण्डका बीज अपने कोश रूपी बन्धनके छेद होते ही जैसे ऊपरको जाता है उसी प्रकार कर्म बन्धनोंके नष्ट होनेसे यह ऊपरको जाता है। अथवा जिसप्रकार अग्नि की शिखाका ऊपरको उठना ही स्वभाव है, उसी प्रकार जीवका भी ऊर्ध्वगमन स्वभाव है, अतः मुक्त होते ही वह ऊपरको जाता है / ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मतिः। . धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परम् / / लोकान्तसे भी ऊपर सिद्धोंका गमन क्यों नहीं होता ? इस शंकाका समाधान यह है कि उससे ऊपर धर्मास्तिकाय द्रव्यका अभाव है और जीव-पुदगलोंकी गतिका यही परम कारण है // 8 // संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् / .. . अव्यावाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्पिभिः // 6 // . . सिद्ध जीवोंका सुख सांसोरिक विषयोंसे रहित अव्यय अव्यावाध और परमोत्कृष्ट है, ऐसा परम ऋषियोंने कहा है // 9 // :. . ... लोके तत्सदृशो ह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते / ....... . . .. उपमीयेत तयेन तस्मान्निरुपमं स्मृतम् / / 10 // ..... ..सम्पूर्ण लोकमें ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जिसकी कि उपमा