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________________ त्रयोदश अध्याय 256 ... तदनन्तर चारों धातिया कर्मोंके नष्ट हो जानेपर यथाख्यात संयमका धारक वह साधु कर्म-वन्धनके बीजसे रहित होकर स्नातक परमेश्वर अरहंत बन जाते हैं। उसके चार अघातिया कर्म अवशिष्टं रहते हैं अतः तत्काल मुक्ति नहीं होती किन्तु मुक्त होनेके पूर्व तक उन कर्मोके फलकी अपेक्षा रहती है / इसप्रकार वे जिन शुद्ध, बुद्ध, निरामय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और केवलज्ञानके धारक अरहन्त परमेष्ठी .. कहलाते हैं ||4-5 // . . कृत्स्नकर्मक्षयादूचं निर्वाणमधिगच्छति / यथा दग्धेन्धनो वह्निनिरुपादानसन्ततिः // 6 // . . . उस अरहन्त अवस्थामें रहते हुए वे सर्व देशोंमें बिहार कर और भव्य जीवोंको मोक्षमार्गका उपदेश देकर अन्तमें योग-निरोध कर तथा शेष चार अघातिया कर्मोंका भी क्षयकर सर्व कर्मसे रहित होकर वे अरहन्त परमेष्ठी निर्वाणको प्राप्त हो जाते हैं / जिसप्रकार ईंधन रूप नवीन उपादान कारणसे रहित और पूर्वसंचित ईंधनको जलाकर भस्म कर देनेवाली अग्नि शान्त हो जाती है, उसी प्रकार कर्मरूप ईंधनको जलाकर यह आत्मा भी परम शान्तिको प्राप्त हो जातो है // 6 // ... ... .. .. ... .::. तदनन्तरमेवोलमालोकान्तास गच्छति / .. . . , पूर्वप्रयोगासङ्गत्वबन्धच्छेदोर्ध्वगौरवैः / / 7 / / . . . ... समस्त कर्मोंके क्षय होनेके पश्चात् ही यह जीव ऊपर लोकके अन्त तक चला जाता है, जहाँ पर कि रहकर अनन्तानन्न काल तक परम अतीन्द्रिय आत्मिक सुखकों भोगेगा। ऊपर जानेका कारण पूर्व प्रयोग, असंगता, बन्धच्छेद और ऊर्ध्वगमन-स्वभावता है // 7 //
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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