________________ द्वादश अध्याय 255 शुक्लध्यानके भेद शुक्लं पृथक्त्वमायं स्यादेकत्वं तु द्वितीयकम् / सूक्ष्म क्रियं तृतीयं तु तुर्य व्युपरतक्रियम् // 30 // 1 पृथक्त्व वितर्क, 2 एकत्ववितर्क, 3 सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति __ और 4 व्युपरतक्रियानिवृत्ति ये चार शुक्लध्यानके भेद हैं // 30 // - भावार्थ-यह शुक्लध्यान परम गहन और सूक्ष्म है। इन . चार भेदोमसे आदिके दो शुलध्यान चतुर्दशपूर्वके पाठी साधुके ही होते हैं। अन्तिम दोनों शुलध्यान केवली भगवान्के होते है / आदिके दो शुक्लध्यानोंके द्वारा चार घातिया कोका नाश किया जाता है और अन्तिम दोनों शुक्लथ्यानांसे चारों अघातिया कोका नाश किया जाता है / इन ध्यानोंका स्वरूप विवेचन बहुत गहन एवं सूक्ष्म है, तथापि जिज्ञासु जनोंको सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकके नवें अध्यायसे उनका विशेष वर्णन जानना चाहिए। ___ अब कर्मोंकी निर्जराके क्रमका वर्णन करते हैं सम्यग्दर्शनसम्पन्नः संयतासंयतस्ततः / संयतस्तु ततोऽनन्तानुबन्धिप्रवियोजकः // 3 // इग्मोहक्षपकस्तस्मात्तथोपशमकस्ततः / उपशान्तकपायोऽतस्ततस्तु क्षपको मतः // 32 // ततः क्षीणकपायस्तु घातिमुक्तस्ततो जिनः / दशैते क्रमतः सन्त्यसंख्येयगुणनिर्जराः // 33 // 1 सम्यग्दृष्टि जीव, 2 संयतासंयत श्रावक, 3 संयमी मुनि, 4 अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेवाला, 5 दर्शनमोहनीयकर्मका क्षय करनेवाला, 6 उपशमश्रेणी चढ़नेवाला, 7 उपशान्तकषायवीतराग, 8 क्षपकश्रेणी चढ़नेवाला, 9 क्षीणकषायवीतराग