________________ 254 जैनधर्मामृत 2 अपायविचय धम्यध्यानका स्वरूप कथं मार्ग प्रपद्येरन्नमी उन्मार्गतो जनाः / अपायमिति या चिन्ता तदपायविचारणम् // 27 // ये संसारके प्राणी उन्मार्गसे दूर होकर किस प्रकार सुमार्गको प्राप्त हों, व दुःखोंसे छूटें, इस प्रकारका विचार करना सो अपायविचय धय॑ध्यान है // 27 // ३विपाकविचयधर्यध्यानका स्वरूप द्रव्यादिप्रत्ययं कर्म फलानुभवनं प्रति / भवति प्रणिधानं यद्विपाकविचयस्तु सः // 28 // द्रव्य, क्षेत्र, काल आदिके निमित्तसे कर्मके फलका अनुभव होता है, इसप्रकार कौके विपाक ( फल ) के चिन्तवन करनेको विपाक विचय धर्म्यध्यान कहते हैं // 28 // 4 संस्थानविचयधर्म्यध्यानका स्वरूप - लोकसंस्थानपर्यायस्वभावस्य विचारणम् / / लोकानुयोगमार्गेण संस्थानविचयो भवेत् / / 2 / / : लोकानुयोग शास्त्रमें वर्णित मार्गसे लोकके आकार, पर्याय और . स्वभावका विचार करना सो संस्थानविचय धर्म्यध्यान है // 29 // उपसंहार-उक्त चारों प्रकारके धर्म्यध्यानोंसे पूर्व संचित कर्मोंकी निर्जरा होती है और परम आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है, इसलिए ज्ञानी जनोंको सदा धर्म्यध्यान रूप प्रवृत्ति रखना चाहिए / यह धर्म्यध्यान चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। आठवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक शुक्ल ध्यान ही होता है। . . . . . . .