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________________ द्वादश अध्याय 253 पर उसके दूर करनेके लिए रात-दिन हाय हाय करना सो वेदना आर्तध्यान है। इस प्रकार संक्षेपसे आर्तध्यानका वर्णन किया॥२३॥ 2 रौद्रध्यानका स्वरूप हिंसायामनृते स्तेये तथा विपयरक्षणे / रौद्रं कपायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः // 24 // हिंसा करनेमें सकपाय रुद्र भाव रखना हिंसानन्द रौद्रध्यान है, झूठ बोलनेमें सदा अनुरक्त रहना मृषानन्द रौद्रध्यान है। चोरी करनेके सदा विचार रखना स्तेयानन्द रोद्रध्यान है और विषयोंके संरक्षणमें सदा कपाय संयुक्त रौद्रभाव रखना सो परिग्रहानन्द नामका चौथा रौद्रध्यान है। इस प्रकार संक्षेपसे रौद्रध्यानको कहा // 24 // ये दोनों कुध्यान हैं, इनका त्याग करना चाहिए / ३धय॑ध्यानके भेद / आज्ञापायं विपाकानां विवेकाय च संस्थितेः / मनसः प्रणिधानं यद् धर्म्यध्यानं तदुच्यते // 25 // - आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय रूप जो मनका उपयोग रखना, सो चार प्रकारका धय॑ध्यान है // 25 // 1 आज्ञाविचय धर्म्यध्यानका स्वरूप प्रमाणीकृत्य सार्वज्ञीमाज्ञामर्थावधारणम् / गहनानां पदार्थानामाज्ञाविचयमुच्यते // 26 // सर्वज्ञ देवकी आज्ञाको प्रमाण करके गहन पदार्थोंके स्वरूपका निश्चय करना सो आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है // 26 //
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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