________________ રપર जैनधर्मामृत विशेषार्थ-निःशंकित आदि अंगोंका धारण करते हुए सात तत्त्वोंका श्रद्धान करना और सम्यग्दृष्टिका विनय करना दर्शनविनय है। बहुत आदर भावके साथ ज्ञानका अभ्यास करना और ज्ञानी पुरुषोंकी भक्ति करना ज्ञानविनय है। दर्शन-ज्ञान युक्त सन्यक्चारित्रके प्रति आदर रखना और संयमीकी विनय करना, चारित्रविनय है / आचार्य आदिक पूज्य पुरुषोंके आनेपर उठ खड़ा होना, वन्दना आदि करना, उनके पीछे चलना उपचारविनय है। इस विनय तपसे भी कर्मोंकी निर्जरा होती है। 6 ध्यान तपका वर्णन भात्तं रौद्रं च धम्यं च शुक्लं चेति चतुर्विधम् / ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽङ्गमुभयं भवेत् // 22 // आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान यह चार __ प्रकारका ध्यान है / इनमेंसे तपके अंगभूत तो अन्तिम दो ही ध्यान हैं। आदिके दोनों ध्यान तो संसारके ही कारण हैं // 22 // 1 आर्तध्यानका स्वरूप प्रियभ्रंशेऽप्रियमाप्तौ निदाने वेदनोदये / आत्तं कपायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः // 23 // प्रियवस्तुके वियोग हो जानेपर बार-बार उसकी प्राप्तिके लिए चिन्तवन करना सो इष्ट-वियोग आतध्यान है। अप्रिय वस्तुके संयोग हो जानेपर उसके दूर करनेके पुनः पुनः विचार करना सो अनिष्ट-संयोग आर्तध्यान है। आगामी भवोंमें सुख-प्राप्तिकी चिन्तना करते रहना सो निदान आर्तध्यान है और वेदनाके होने