________________ द्वादश अध्याय 251 3 वैय्यावृत्त्य तप . . सूर्युपाध्यायसाधूनां शैत्यग्लानतपस्विनाम् / कुलसंघमनोज्ञानां वयावृत्त्यं गणस्य च // 18 // व्याध्याद्युपनिपातेऽपि तेपां सम्यग्विधीयते / स्वशक्त्या यत्प्रतीकारो वैयावृत्त्यं तदुच्यते // 16 // आचार्य, उपाध्याय, साधु, नवीन दीक्षित शैक्ष्य, रोगी, ग्लानमुनि, तपस्वी, आचार्य परम्पराके साधु, श्रमण, मुनि, अनगार और ऋषिरूप संघवाले साधु, मनोज्ञ साधु और वृद्ध परम्परा वाले साधु जनोंकी व्याधि, उपसर्ग आदि आ जाने पर स्वशक्तिके अनुसार जो उसका प्रतीकार करते हुए भले प्रकार सेवा-टहल की जाती है, उसे वैयावृत्त्य तप कहते हैं // 18-19 // .. 4 व्युत्सर्ग तप वाह्यान्तरोपधित्यागाद् व्युत्सर्गो द्विविधो भवेत् / क्षेत्रादिरुपधिर्वाह्यः क्रोधादिरपरः पुनः // 20 // . क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य-उपधि कहलाती हैं और क्रोध, मान आदि आभ्यन्तर-उपधि कहलाती हैं, इन दोनों प्रकारकी बाह्य और अन्तरंग-उपधिके त्याग करनेसे व्युत्सर्ग तप भी दो प्रकारका हो जाता है // 20 // . .. .. . ५विनय तप ... दर्शन-ज्ञान विनयौ चारित्रविनयोऽपि च / / .. . तथोपचारविनयो विनयः स्याच्चतुर्विधः // 21 // - दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय इस प्रकार विनय तपके चार भेद हैं // 21 //