________________ 250 जैनधर्मामृत परिहारस्तथाच्छेदः प्रायश्चित्तभिदा नव / प्रायश्चित्तं तपो ज्ञेयमात्मसंशुद्धिकारणम् // 17 // आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, तप, व्युत्सर्ग, विवेक, उपस्थापना, परिहार, छेद ये प्रायश्चित्तके नौ भेद हैं। यह प्रायश्चित्त तप ही आत्माकी परम शुद्धिका कारण जानना चाहिए // 16-17 // .. विशेषार्थ-अपने दोषोंको निष्कपट भावसे गुरुके सम्मुख निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त है। अपने दोषको जानकर 'हा, मैंने यह वुरा किया' इस प्रकारसे अपनी निन्दा करनेको प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त कहते हैं। किसी महान् दोषके लग जाने पर आलोचना और प्रतिक्रमण दोनोंके एक साथ करनेको तदुभयप्रायश्चित्त कहते हैं। उपवास आदि तपोंके द्वारा आत्मशुद्धिके करनेको तपःप्रायश्चित्त कहते हैं। किसी अपराधके हो जानेपर कायोत्सर्ग आदि करके उसे शुद्ध करनेको व्युत्सर्गप्रायश्चित्त कहते हैं। किसी बहुत बड़े दोषके लग जाने पर गुरुके द्वारा दण्डस्वरूप खान-पान, पात्र आदिका जो पृथक्करण कर दिया जावे और उसे शिरोधार्यकर आत्मशुद्धि करे, तो वह विवेकप्रायश्चित्त कहलाता है। किसी महान् पापके लग जाने या किसी व्रतके सर्वथा खण्डित हो जाने पर पुनः दीक्षा धारण करना उपस्थापना प्रायश्चित्त है। मास आदिके विभागसे कुछ दिनों तक संघसे दूर रह कर आत्म-शुद्धिके करनेको परिहारप्रायश्चित्त कहते हैं / कुछ काल तक दीक्षाको छेद कर आत्म-शुद्धि करनेको छेद प्रायश्चित्त कहते हैं। इन प्रायश्चित्तोंके द्वारा संचित दोष दूर होता है और कर्मोंकी निर्जरा होती है, इसी लिए हमारे महर्षियोंने प्रायश्चित्त तपका विधान किया है।