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________________ 246 जैनधर्मामृत उदाहरण पूर्वक दोनों निर्जराओंका स्पष्टीकरण यथानपनसादीनि परिपाकमुपायतः / अकालेऽपि प्रपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनाम् // 4 // अनुभूय क्रमाकर्म विपाकप्राप्तमुज्झताम् / प्रथमास्त्येव सर्वेषां द्वितीया तु तपस्विनाम् // 5 / / __ जैसे आम, पनस आदि फल अकालमें भी उपायसे परिपाक को प्राप्त हो जाते हैं; उसी प्रकार प्राणियोंके कर्म भी यथाकाल उदयमें आनेके पूर्व ही तपस्या आदिके द्वारा क्रमसे विपाकको प्राप्त कर और अनुभव कर निर्जीर्ण कर दिये जाते हैं। इनमें जो विपाकजा निर्जरा है, वह समस्त संसारी जीवोंके पाई जाती है, किन्तु जो दूसरी अविपाकजा निर्जरा है वह तपस्वी साधुओंके ही होती है // 4-5 // अब कर्म-निर्जराके प्रधान कारणभूत तपका वर्णन करते हैं तपस्तु द्विविधं प्रोक्तं वाह्याभ्यन्तरभेदतः / प्रत्येकं पड्विधं तच सर्व द्वादशधा भवेत् // 6 // तपके दो भेद हैं-बाह्य तप और आभ्यन्तर तप / इनमें प्रत्येक के छह छह भेद हैं, इस प्रकार दोनों तपोंके बारह भेद हो जाते हैं // 6 // वाह्य तपके भेद बाह्यं तत्रावमोदर्यमुपवासो रसोज्झनम् / वृत्तिसंख्या वपुःक्लेशो विविक्तशयनासनम् // 7 // 1 अवमोदर्य, 2 उपवास, 3 रसपरित्याग, 4 वृत्तिपरिसंख्यान, 5 कायक्लेश और 6 विविक्तशय्यासन / ये छह बाह्य तपके भेद हैं॥७॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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