________________ द्वादपा अध्याय निर्जराका स्वरूप और उसके भेद उपात्तकर्मणः पातो निर्जरा द्विविधा च सा। आद्या विपाकना तन द्वितीया चाविपाकजा // 1 // संचित कर्मके दूर करनेको निर्जरा कहते हैं / वह निर्जरा दो प्रकार की है। एक विपाकजा निर्जरा और दूसरी अविपाकजा निर्जरा // 1 // 1 विपाकजा निर्जराका स्वरूप अनादिवन्धनोपाधिविपाकवशवर्तिनः / कारब्धफलं यत्र क्षीयते सा विपाकजा // 2 // अनादि कालसे बंधे हुए कर्मरूप उपाधिके परिपाकके वश हो कर जो कर्म समय आनेपर उदयमें आकर और अपना फल देकर नष्ट होता है, उसे विपाकजा निर्जरा कहते हैं // 2 // 2 अविपाकजा निर्जराका स्वरूप अनुदीर्णं तपःशक्त्या यत्रोदीर्णोदयावलीम् / प्रवेश्य वेद्यते कर्म सा भवत्यविपाकजा // 3 // उदयमें नहीं आये हुए कर्मोंको तपकी शक्तिसे उदीर्ण करके और उन्हें उदयावलीमें प्रवेश करके जो कर्मका वेदन किया जाता है, उसे अविपाकजा निर्जरा कहते हैं // 3 // .