________________ . . द्वादश अध्याय : संक्षिप्त सार / संवरसे यद्यपि नवीन कोंका आना रुक जाता है, तथापि पुरातन कर्म तो आत्मामें संचित ही रहते हैं, उन्हें भी दूर करनेके लिए आत्माको महान् प्रयास करना पड़ता है और उस प्रयासके करते हुए भी कर्म-परमाणु एक साथ ही दूर नहीं हो जाते, किन्तु क्रम-क्रमसे दूर होते हैं। कर्मो के इसी क्रम-क्रमसे दूर होनेको निर्जरा कहते हैं। इस कर्म-निर्जराके लिए जिस महान् प्रयास या पुरुषार्थकी आवश्यकता होती है, उसे तप कहते हैं। शारीरिक तपस्याको बाह्य तप और मानसिक तपस्याको अन्तरंग तप कहते हैं / जैनधर्ममें शारीरिक तपस्याको वहीं तक स्थान या महत्त्व दिया गया है, जहाँ तक कि वह मानसिक तपस्या अर्थात् इच्छा-निरोधके लिए सहायक है। यदि शारीरिक तपस्या करते हुए भी मनुष्य मनकी इच्छाओंका निरोध नहीं कर पाता है, तो उस तपको जैनधर्ममें कोई स्थान नहीं दिया गया है, बल्कि उसे निरर्थक कहा गया है। बाह्य या शारीरिक तप तो अन्तरंग या मानसिक तपकी सिद्धिके लिए ही बतलाया गया है। इसलिए बाह्य तपोंको यथाशक्ति आवश्यकतानुसार करते हुए अन्तरंग तपोंके बढ़ानेके लिए जैनाचायोंने उपदेश दिया है। प्रस्तुत अध्यायमें इन्हीं बहिरंग और अन्तरंग तपोंके भेदोंका स्वरूप बतला कर अन्तमें बतलाया गया है कि मानसिक तपोंमें भी सर्वोत्तम तप जो शुक्लध्यान है, वस्तुतः वही कर्म-निर्जराका प्रधान कारण है और उसके द्वारा ही प्रति समय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा करता हुआ जीव एक अन्तर्मुहूर्त मात्रमें ही कर्म-विनिर्मुक्त हो जाता है।