________________ 243 . एकादश अध्याय 5 यथाख्यातचारित्रका स्वरूप क्षयाचारित्रमोहस्य कात्स्न्येनोपशमात्तथा। यथाख्यातमथाख्यातं चारित्रं पञ्चमं जिनः॥४॥ चारित्र मोहनीयकर्मके समस्तरूपसे उपशम हो जाने पर ग्यारहवें गुणस्थानमें और क्षय हो जाने पर बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें जो चारित्र प्रगट होता है उसे जिन भगवान्ने यथाख्यात या अथाख्यात नामका पाँचवाँ चारित्र कहा है // 41 // - भावार्थ-यथा अर्थात् जैसा आत्माका स्वभाव आख्यात अर्थात् कहा है, वैसा ही निर्मल स्वभाव प्रगट हो जानेको यथाख्यातचारित्र कहते हैं / अथवा अभी तक जो वीतरागता प्रगट नहीं हुई / थी, उसके अथ अर्थात् अब प्रगट होनेको अथाख्यातचारित्र कहते हैं। यह सबसे उत्कृष्ट चारित्र है, इसके हो जाने पर चार घातिया कर्मोंका तो पूर्व संवर हो ही जाता है साथ ही तीन अघातिया कर्मोंका आस्रव भी रुक जाता है। केवल एक सातावेदनीय कर्म ही एक समयके लिए नाममात्रको जाता है। अतः यह चारित्र ही संवरका पूर्णतः साधक है। - सम्यकचारित्रमित्येतद्यथास्वं चरतो यतेः। सर्वास्त्रवनिरोधः स्यात्ततो भवति संवरः // 42 // उक्त प्रकारके सम्यकचारित्रको यथायोग्य पालन करते हए साधुके सर्व कर्मोंके आस्रवका निरोध होता है और उससे परम संवर होता है // 42 // .. संवर तत्त्वके विशेष परिज्ञानके लिए. तत्त्वार्थसूत्रका नवा अध्याय और उसकी संस्कृत-हिन्दी टीकाओंको देखना चाहिए। - इस प्रकार संवरतत्त्वका वर्णन करने वाला ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।