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________________ ર૪ર जैनधर्मामृत रहा है, सर्वप्रकारके भोगोपभोगोंको जिसने भोगा है पुनः विरक्त हो दीक्षा लेकर जिसने 7-8 वर्ष तक तीर्थकर भगवान्के चरणकमलोंके सम्पर्कमें रह कर प्रत्याख्यानशास्त्रका अध्ययन कर प्राणायाम आदि साधनोंसे शरीरको इतना साध लिया है कि उसके चलनेफिरने, खाने-पीने और सोने-बैठने आदिमें जीवहिंसा जरा-सी भी संभव नहीं रहती-ऐसे जीवरक्षामें कुशल साधुके जो चारित्रकी विशुद्धि होती है, उसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं। यह चारित्र छठे और सातवें गुणस्थानवी साधुके ही होता है। 4 सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कपायेपु प्रशान्तेषु प्रक्षीणेवखिलेपु वा। स्यात्सूक्ष्मसाम्परायाख्यं सूचमलोभवतो यतेः // 40 // . समस्त कषायोंके प्रशान्त होने पर या प्रक्षीण हो जाने पर सूक्ष्म लोमके धारक साधुके जो चारित्र होता है, वह सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहलाता है // 40 // भावार्थ-यह चारित्र उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणीके दशवें गुणस्थानवर्ती साधुके ही होता है, अन्यके नहीं। दश गुणस्थानमें मोहकर्मकी सर्वप्रकृतियाँ या तो उपशान्त हो जाती हैं, या क्षय हो जाती हैं। केवल एक सूक्ष्म लोभ रह जाता है, सो वह भी अन्तर्मुइतके भीतर ही उपशान्त या नष्ट हो जाता है। ऐसा दशम गुणस्थानवर्ती साधु ही उक्त चारित्रका धारक होता है। सामायिक और छेदोपस्थापना चारित्र छठे गुणस्थानसे लेकर नवें गुणस्थान तक होते हैं। यथाख्यात . चारित्र ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होता है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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