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________________ 240 . जैनधर्मामृत लिए स्तम्भके सदृश है, ऐसा विचार करते हुए सदा धर्म धारण करने में प्रयत्नशील रहना धर्म-भावना है // 34 // एवं भावयतः साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः / ततो हि निःप्रमादस्य महान् भवति संवरः // 35 // इस प्रकार उक्त बारह भावनाओंका चिन्तन करते हुए साधुके धर्म-धारण करने में महान् उद्यम होता है और प्रमाद-रहित अवस्था प्रकट होती है। इस प्रकार वारह भावनाओंके चिन्तनसे कर्मोंका महान् संवर होता है // 35 // अब आगे संवरके कारणभूत चारित्रका वर्णन करते हैं वृत्तं सामयिकं ज्ञेयं छेदोपस्थापनं तथा / परिहारं च सूक्ष्मं च यथाख्यातं च पञ्चमम् // 36 // 1 सामायिंकचारित्र, 2 छेदोपस्थापनाचारित्र, 3 परिहारविशुद्धिचारित्र, 4 सूक्ष्मसाम्परायचारित्र और 5 यथाख्यातचारित्र, ये चारित्रके पाँच भेद हैं // 36 // 1 सामायिकचारित्रका स्वरूप प्रत्याख्यानमभेदेन सर्वसावद्यकर्मणः / ___ नित्यं नियतकालं वा वृत्तं सामयिकं स्मृतम् // 37 // सर्व सावध कर्मका अभेदरूपसे सर्वदाके लिए या नियत कालके लिए त्याग करना सामायिक-चारित्र है // 37|| भावार्थ-जीवन-पर्यन्तके लिए पाँचों पापोंका त्याग करनेके पश्चात् सर्व सावद्य कर्मोंका पुनः सामूहिक रूपसे त्यागकर निर्विकल्प अवस्थाको नियत समय तक धारण करना सामायिक चारित्र कहलाता है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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