________________ एकादश अध्याय 10 लोक-भावना नित्याध्वगेन जीवेन भ्रमता लोकवर्त्मनि / . वसतिस्थानवत्कानि कुलान्यध्युपितानि न // 32 // इस लोकरूपी मार्गमें निरन्तर परिभ्रमण करते हुए सततपथिक इस जीवने वसति स्थानोंके ( पड़ावोंके) समान किन-किन कुलोंको बार-बार नहीं सेवन किया है ? अर्थात् इस सारे लोकमें अनन्त बार जन्म-मरण किया है, ऐसा चिन्तवन करके लोकसे भयभीत हो उससे छूटनेका उपाय करते रहना लोक-भावना है // 32 // ... 11 वोधिदुर्लभ-भावना . . . . .. मोक्षारोहणनिःश्रेणिः कल्याणानां परम्परा / . . अहो कष्टं भवाम्भोधौ बोधिर्जीवस्य दुर्लभा // 33 // मोक्षरूपी महल पर चढ़नेके लिए नसेनी स्वरूपऔर कल्याणोंकी परम्परारूप यह बोधिकी प्राप्ति होना, इस संसार-समुद्रमें अहो कष्ट है, कि जीवको अत्यन्त दुर्लभ है। अर्थात् अन्य सब वस्तुओंकी प्राप्ति संसारमें एक वार सुलभ है, परन्तु सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा विचार कर निरन्तर सच्चे आत्मिक ज्ञानकी * प्राप्तिके लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए, यह बोधिदुर्लभ भावना 12 धर्म-भावना. . . . . . . ..' शान्त्यादिलक्षणो धर्मः स्वाख्यातो जिनपुङ्गवैः / '. अयमालम्बनस्तस्भो भवाम्भोधौ निमजताम् // 34 // ... : .... जिनभगवान्ने जो उत्तम क्षमादिरूप दश प्रकारके लक्षणवाला * धर्म कहा है, वही इस संसार-समुद्रमें डूबनेवाले प्राणियोंके आश्रयके