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________________ 238 जैनधर्मामृत 7 आस्त्रव-भावना कर्माम्भोभिः प्रपूर्णोऽसौ योगरन्ध्रसमाहृतैः / हा दुरन्ते भवाम्भोधौ जीवो मजति पोतवत् // 26 // योगरूपी छिद्रोंसे आने वाले कर्मरूप जलसे भरा हुआ यह जीव जहाजके समान इस दुरन्त संसाररूपी समुद्रमें डूब जाता है, यह महान् कष्टकी बात है। ऐसा विचार करते हुए कर्मोंके आस्रव से बचनेकी निरन्तर चेष्टा करते रहना आसव-भावना है ||29|| ८संवर-भावना योगद्वाराणि रुन्धन्तः कपाटैरिव गुप्तिभिः / आपतदिन वाध्यन्ते धन्याः कर्मभिरुत्कटः // 30 // किवाड़ोंके समान गुप्तियोंके द्वारा योगरूपी द्वारोंको बन्दकर धन्य पुरुष आने वाले विकट कर्मोंके द्वारा नहीं पीड़ित होते हैं, ऐसा चिन्तवन करते हुए संवर करनेके लिए निरन्तर उद्यत रहना संवर-भावना है // 30 // निर्जरा-भावना गाढोपर्जायते यद्वदामदोपो विसर्पणात् / तद्वन्निजीयते कर्म तपसा पूर्वसञ्चितम् // 31 // जिस प्रकार आमाशयमें संचित अपक्क मल अनशन आदिके द्वारा परिपक्क होकर निकल जाता है, उसी प्रकार अनेक पूर्व भवोंसे संचित कर्म अनशन-आदि तपोंके द्वारा झड़ जाता है, ऐसा चिन्तवन करते हुए सदा तप धारण करनेको उत्सुक रहना निर्जरा भावना है // 31 //
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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