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________________ एकादश अध्याय 18 शरीरके मलसे संलिप्त हो जाने पर भी जीवरक्षाके अभिप्रायसे स्नान नहीं करना, 19 आदर-सत्कार नहीं होने पर और अपमान होने पर भी उसका विचार तक नहीं करना, 20 अवधिज्ञान आदि हो जाने पर भी उसका मद नहीं करना, 21 अवधिज्ञान आदिके नहीं होने पर भी चित्तको खेद-खिन्न नहीं करना, 22 भयंकर कष्ट आने पर और व्रतादिकसे भ्रष्ट होनेके अवसर आने पर भी सम्यग्दर्शनसे च्युत न होना और अपने व्रतोंको बराबर स्थिर रखना, इस प्रकार ये बाईस परीपहोंको अपने स्वीकृत किये व्रतोंके सम्यक् परिपालनके निमित्त सहर्ष सहन करना चाहिए // 16-18 // संवरो हि भवत्येतानसंक्लिप्टेन चेतसा। सहमानस्य रागादिनिमित्तास्रवरोधतः // 16 // . उक्त वाईस परीषहोंको संलश-रहित चित्तसे सहनेवाले साधुके रागादि कारणोंके द्वारा होनेवाले कर्मोंका आस्रव रुक जानेसे महान् संवर होता है और कर्मोंकी निर्जरा भी होती है, इसलिए - साधुजन सहर्ष परीषहोंको सहन करते हैं // 19 // तपो हि निर्जराहेतुरुत्तरत्र प्रचच्यते / संव रस्यापि विद्वांसो विदुस्तन्मुखकारणम् // 20 // तप निर्जराका कारण है ऐसा आगे निर्जरा प्रकरणमें कहेंगे, परन्तु विद्वज्जनोंने तपको संवरका भी प्रधान कारण कहा है // 20 // वारह अनुप्रेक्षाएँ अनित्यं शरणाभावो भवश्चैकत्वमन्यता / अशौचमाञवश्चैव संवरो निर्जरा तथा // 21 // लोको दुर्लभता बोधेः स्वाख्यातत्वं वृपस्य च / अनुचिन्तनमेतेपामनुप्रेक्षाः प्रकीर्तिताः // 22 //
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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