SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 234 जैनधर्मामृत धर्मों के प्रतिपक्षी क्रोधादि कपायोंके आस्रव रुक जानेसे संबर होता है // 15 // चाईस परीपह-जय क्षुत्पिपासा च शीतोष्ण-दंश-मत्कुणनग्नते / भरतिः स्त्री च चर्या च निपद्या शयनं तथा // 16 // आक्रोशश्च वधश्चैव याचनालाभयोयम् / रोगश्च तृणसंस्पर्शस्तथा च मलधारणम् // 17 // असत्कारपुरस्कारं प्रज्ञाज्ञानमदर्शनम् / इति द्वाविंशतिः सम्यक् सोढव्याः स्युः परीपहाः // 18 // 1 भूखकी वेदना सहना, 2 प्यासकी वेदना सहना, 3 शीत की वेदना सहना, 4 उप्णताकी वेदना सहना, 5 डांस मच्छर, खटमल आदिकी वेदना सहना, 6 नग्नपनेका दुःख सहना, 7 अरुचिकर या अप्रिय पदार्थके संयोग मिलने पर उसका दुःखं सहना, 8 स्त्रियोंके द्वारा उपद्रव आजाने पर भी अडोल-अकम्प बने रहकर ब्रह्मचर्यकी रक्षा करते हुए स्त्रीपरीपहका जीतना, ९चलनेमें कंकर-पत्थर. आदिकी बाधाका सहना, 10 कंकरीली पथरीली भूमिपर बैठनेका दुःख सहना, 11 भूमिपर सोनेका दुःख सहना, 12 दूसरेके द्वारा गाली-गलौज करने पर भी शान्त बने रहना, 13 दूसरेके द्वारा मारण-ताडन आदि होने पर भी शान्त रहना, 14 अत्यन्त भूख प्यास लगने पर भी किसीसे कुछ नहीं माँगना, 15 भोजनके अलाभमें भी सन्तुष्ट रहना, 16 रोग आदि हो जाने पर भी सहर्ष. उसकी वेदनाको सहना, 17 चलते-फिरते घास, . .. कास आदि तीखे पदार्थोंके चुभनेका दुःख सहन करना, .
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy