________________ जैनधर्मामृत 4 शौचधर्म परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः। चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते / / 6 / / परिभोग, उपभोग, जीवित और इन्द्रियके भेदरूप चार प्रकार के लोभकी अत्यन्त निवृत्तिको शौचधर्म कहा है // 9 // विशेषार्थ खान-पानकी वस्तुओंको परिभोग और वस्त्र, भवन शय्यादिको उपभोग कहते हैं। लोभ या तो उपभोग-परिभोगकी वस्तुओंका होता है या जीनेका और इन्द्रियोंके विषयसेवन का / अतः इन चारों ही प्रकारके लोभके त्याग करने पर मनुप्यके हृदयमें पूर्ण पवित्रता आती है। ५सत्यधर्म ज्ञानचारित्रशिक्षादौ स धर्मः सुनिगद्यते / / धर्मोपबृंहणायं यत्साधुसत्यं तदुच्यते // 30 // आत्मा-धर्मकी वृद्धिके लिए जो ज्ञान, चारित्र और प्रायश्चित्त आदिमें सचाई रखी जाती है, उसे उत्तम सत्य धर्म कहा है // 10 // ६संयमधर्म इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां वधवर्जनम् / समितौ वर्तमानस्य मुनेर्भवति संयमः // 11 // इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्य धारण करना और प्राणियोंकी हिंसाका त्याग करना संयम है। यह धर्म समितिमें प्रवर्तमान मुनिके जब होता है तब वह उत्तम संयम कहलाता है // 11 //