________________ 230 जैनधर्मामृत निग्रहको कायगुप्ति कहते हैं / कहनेका सार यह कि मन-वचनकायसे सर्व सांसारिक विकल्प-जालको दूर कर शुद्ध आत्मस्वरूपमें स्थिर होना गुप्ति है। __ तत्र प्रवर्तमानत्य योगानां निग्रहे सति / तन्निमित्तात्रवाभावात्सद्यो भवति संवरः // 4 // इन गुप्तियोंमें प्रवर्तमान पुरुषके मन-वचन काय रूप तीनों योगोंके निग्रह हो जाने पर योगोंके निमित्तसे होने वाले आस्रवका . अभाव हो जाता है, जिससे कि कर्मोंका आना रुक जानेसे शीघ्र संवर होता है // 4 // समितियोंके भेद ईर्याभाषपणादाननिक्षेपोत्सर्गभेदतः / पञ्चगुप्तावशक्तस्य साधोः समितयः स्मृताः // 5 / / ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपण - समिति और उत्सर्गसमिति ये पाँच समितियां कही गई हैं। जब साधु गुप्तियोंके धारण करने में असमर्थ होता है, तब वह समितियों को धारण करता है, अर्थात् उनका आश्रय लेता है // 5 // ____ भावार्थ-यद्यपि कर्मोंके आस्रवको पूर्णतः रोकने में समर्थ गुप्ति ही है, परन्तु गुप्तियोंमें साधुके लिए एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक रहना अशक्य है, अतः उस समय साधु अपने खान-पान, गमनागमन, वचन-व्यवहार आदिको अत्यन्त सावधानीसे संयम पूर्वक करता है, बस, उसका यह संयम पूर्वक व्यवहार ही समिति कहलाता है। इन पाँचों समितियोंका मुनिधर्मके वर्णन करते समय विस्तृत वर्णन कर आये हैं।