SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकाद अयाय ___ संवरतत्वका स्वरूप कर्मवन्धनहेतूनामात्मनः सति सम्भवे / आस्रवस्य निरोधो यः स जिनैः संवरः स्मृतः // 1 // कर्म-बन्धके कारण जो मिथ्यादर्शन, अविरति आदि बन्ध तत्त्वके वर्णनमें बतला आये हैं, उनका आत्मामें सद्भाव संभव होने पर उनके निमित्तसे जो काँका आस्रव होता है, उसके निरोधको जिन भगवान्ने संवर कहा है // 1 // ___ गुप्तिः समितयो धर्मः परीपहजयस्तपः। अनुप्रेक्षाश्च चारित्रं सन्ति संवरहेतवः // 2 // - गुप्ति, समिति, धर्म, परीषह-जय, तप, अनुप्रेक्षा और चारित्र, ये संवरके कारण बतलाये गये हैं // 2 // गुप्तिका स्वरूप और भेद / योगानां निग्रहः सम्यग्गुप्तिरित्यभिधीयते / मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च सा त्रिधा // 3 // मन, वचन और काय इन तीनों योगोंके सम्यक् विग्रहको गुप्ति कहते हैं। वह गुप्ति तीन प्रकारकी है—मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्तिः // 3 // . भावार्थ-मानसिक संकल्प-विकल्पके अभावको मनोगुप्ति कहते हैं / वाचनिक विकथा-संलाप आदि वचन-जालके निरोधको वचनगुप्ति कहते हैं। शारीरिक हलन-चलन, गमनागमनादिके
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy