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________________ 0 ए कादश अध्याय : संक्षिप्त सार . कर्मोके आस्रव रोकनेको संवर कहते हैं। क्रर्म-परमाणु आत्माकी ओर आकृष्ट ही न हों, या आत्मामें प्रवेश न कर सके, इसके लिए जिन उपायोंके आलम्बनकी आवश्यकता होती है, उन्हें संवरका कारण कहा जाता है। वे पाँच प्रकारके हैं-गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र / मन, वचन, कायकी चंचलताके रोकनेको गुप्ति कहते हैं। कर्मोंके आस्रवको रोकनेके लिए यही सर्व-श्रेष्ठ उपाय या प्रधान कारण है। किन्तु संसारी . जीवकी प्रवृत्ति पुरातन संस्कारोंके कारण कुछ ऐसी विलक्षण वन रही है कि मन, वचन, कायकी प्रवृत्तियोंका एकदम रोकना संभव नहीं है, अतः उसके लिए मध्यम मार्गरूप शेष चार उपायोंका आलम्बन आवश्यक होता है। चलने-फिरने, उठने-बैठने और खान-पानादिमें जीवरक्षाकी दृष्टिसे जो सावधानी रखी जाती है, उसे समिति कहते हैं। विपयकषायोंके जीतनेके उपायोंको धर्म कहते हैं / धर्म-धारण करनेके लिए या धारण किये हुए धर्मकी स्थिरताके लिए जो मानसिक तैयारी की जाती है, या संसार, देह और भोगोंसे विरक्ति उत्पन्न करनेके लिए जो भावना की जाती है उसे अनुप्रेक्षा कहते हैं। आनेवाले संकटोंके सहन करनेको परीषहजय कहते हैं .. और सदाचारके पालन करने तथा उसे उत्तरोत्तर विकसित करते. रहनेको चारित्र कहते हैं। प्रस्तुतं अध्यायमें संवरके इन्हीं पाँचों कारणोंका उनके उत्तर भेदोंके साथ निरूपण किया गया है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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