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________________ . दशम अध्याय 227 आत्माके सर्व प्रदेशोंपर अनन्तानन्त प्रदेशोंकी संख्यामें जीव जिनको आत्मसात् करता है उन प्रदेशोंके बन्धको प्रदेशबन्ध कहते हैं // 18-19 // कौमें पुण्य-पापका विभाग शुभाशुभोपयोगाख्यनिमित्तो द्विविधस्तथा / पुण्यपापतया द्वेधा सर्वकर्म प्रभिद्यते // 20 // उच्चैर्गोत्रं शुभायूंपि सवेद्यं शुभनाम च / द्विचत्वारिंशदित्येवं पुण्यप्रकृतयः स्मृताः // 21 // नीचैर्गोत्रमसद्वेद्यं श्वभ्रायुर्नाम चाशुभम् / द्वयशीतिर्घातिभिः साधं पापप्रकृतयः स्मृताः // 22 // शुभोपयोग और अशुभोपयोगके भेदसे योग दो प्रकारका माना गया है, उनके ही कारण सभी कर्म पुण्य और पापके भेदसे दो विभागोंमें विभक्त हो जाते हैं। उच्च गोत्र, शुभ आयु, साता- . वेदनीय और शुभ नामकर्म इनकी व्यालीस उत्तर प्रकृतियाँ पुण्यरूप मानी गई हैं। नीचंगोत्र, असातावेदनीय, नारकायु, अशुभ नामकर्मकी 35 और घातिया कर्मोंकी 47 ये सब 82 बयासी प्रकृतियाँ पापरूप मानी गई हैं / / 20-22 // बन्धतत्त्वके विशेष ज्ञानके लिए तत्त्वार्थसूत्रका आठवाँ अध्याय और उसकी संस्कृत-हिन्दी टीकाओंको देखना चाहिए / - इस प्रकार बन्धतत्त्वका वर्णन करनेवाला दशवाँ . अध्याय समाप्त हुआ।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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