________________ दशम अध्याय 225 गोत्र और अन्तराय ये आठ प्रकृतिबन्धके भेद हैं, इन्हें कर्मोंकी मूल प्रकृतियाँ जानना चाहिए // 12 // / अब आठों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ कहते हैं- . अन्याः पञ्च नव द्वे च तथाऽष्टाविंशतिः क्रमात् / चतस्रश्च त्रिसंयुक्ता नवतिद्वै च. पञ्च च // 13 // उक्त आठों कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तेरानवे, दो और पाँच जानना चाहिए // 13 // इन आठों कोंकी 148 उत्तर प्रकृतियोंका विस्तृत विवेचन तत्त्वार्थसूत्रके आठवें अध्यायसे जानना चाहिए। - इस प्रकार प्रकृतिबन्धका वर्णन समाप्त हुआ। अब स्थितिबन्धका वर्णन करते हैं कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति .. . वेद्यान्तराययोर्ज्ञानहगांवरणयोस्तथा / कोटीकोव्यः स्मृतास्त्रिंशत्सागराणां परा स्थितिः॥१॥ मोहस्य सप्ततिस्ताः स्युर्विंशतिर्नामगोत्रयोः। आयुपस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागराणां परा स्थितिः // 15 // . ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरोपम है। मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। नाम और गोत्रकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर-प्रमाण है और आयुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम है // 14-15 // ... कर्मोंको जघन्य स्थिति . . . . . . : मुहूर्ता द्वादश ज्ञेया वेद्येऽष्टौ नाम-गोत्रयोः। . . . :: .. स्थितिरन्तर्मुहूर्तस्तु जघन्या शेपकर्मसु // 16 // . . . . . . .