________________ 224 जैनधर्मामृत और सात काययोग इस प्रकार योगके पन्द्रह भेद कहे / गये हैं // 8-6 // वन्धका स्वरूप यजीवः सकपायत्वारकर्मणो योग्यपुद्गलान् / आदत्ते सर्वतो योगात् स बन्धः कथितो जिनः // 10 // यह जीव कपाय-सहित होनेसे कर्मके योग्य पुदगलोंको चारों .. ओरसे ग्रहण करता है, इसे जिन भगवान्ने बन्ध कहा है // 10 // वन्धके भेद प्रकृति-स्थितिबन्धौ द्वौ, बन्धश्चानुभवाभिधः / तथा प्रदेशबन्धश्च ज्ञेयो बन्धश्चतुर्विधः / / 11 / / उस कर्मके चार भेद हैं-प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेशवन्ध // 11 // भावार्थ-कर्मोंमें ज्ञान, दर्शन आदिको घात करनेका जो 'स्वभाव पड़ता है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं / वह कर्म जितने समय तक आत्माके साथ रहेगा, उस कालकी मर्यादाको स्थितिवन्ध कहते / हैं / शुभ-अशुभ फलके देनेको अनुभागबन्ध कहते हैं। आये हुए कर्म पिण्डमें ज्ञानावरणीय कर्मका यह विभाग है, दर्शनावरणीय कर्मका यह विभाग है, इस प्रकार कर्म-प्रदेशोंके विभाजनको प्रदेशबन्ध कहते हैं। ज्ञान-दर्शनयो रोधौ वेद्यं मोहायुपी तथा / नामगोत्रान्तरायौ च मूलप्रकृतयः स्मृताः // 12 // ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम,