________________ 222 जैनधर्मामृत असंयमका स्वरूप और उसके भेद प्रवृत्तिरिन्द्रियार्थेषु पञ्चपापनिपेवणम् / संयमस्य परित्यागः प्रोच्यतेऽविरतिर्बुधैः // 3 // षड्जीवकायपञ्चाक्षमनोविषयभेदतः / कथितो द्वादशविधः सर्वविद्भिरसंयमः // 4 // इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्ति करना, पाँच पापोंका सेवन करना और संयमका धारण नहीं करना, इसे विद्वानोंने अविरति या असंयम कहा है। इस अविरतिरूप असंयमके छह प्रकारके जीवोंकी विराधनाकी अपेक्षा तथा पाँच इन्द्रियों और मनके विषय सेवनकी अपेक्षा सर्वज्ञ देवने बारह भेद कहे हैं // 3-4 // शुद्धयष्टके तथा धर्मे शान्त्यादिदशलक्षणे / योऽनुत्साहः स सर्व प्रमादः परिकीर्तितः // 5 // . आठ प्रकारकी शुद्धियोंके करनेमें तथा उत्तमक्षमादि दशलक्षण धर्मके पालनमें उत्साहके नहीं होनेको प्रमाद कहते हैं। इस प्रमादके द्वारा जीव प्रमत्त होते हैं और अपने शुद्ध स्वरूपसे च्युत होते हैं // 5 // ___ विशेषार्थ-मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, भोजनशुद्धि, ईर्याशुद्धि, शय्याशुद्धि, व्युत्सर्गशुद्धि और विनयशुद्धि, ये आठ प्रकारकी शुद्धियाँ होती हैं। उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्यसंयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य ये दश प्रकारके धर्म कहे गये हैं। ये चारित्रपरीणामं कपन्ति शिवकारणम् / क्रुन्मानवञ्चनालोभास्ते कपायाश्चतुर्विधाः // 6 // , . . जो मोक्षके कारणभूत चारित्र धारण करनेके परिणाम न होने