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________________ नवम अध्याय तपस्विगुरुचैत्यानां पूजालोपप्रवर्तनम् / अनाथदीनकृपणभिक्षादिप्रतिपेधनम् // 47 // वधबन्धनिरोधैश्च नासिकाच्छेदकर्त्तनम् / प्रमादाद्देवत्तादत्तनैवेद्यग्रहणं तथा // 48 // निरवद्योपकरणपरित्यागो वधोऽङ्गिनाम् / दानभोगोपभोगादिप्रत्यूहकरणं तथा // 46 // ज्ञानस्य प्रतिपेधश्च धर्मविघ्नकृतिस्तथा / इत्येवमन्तरायस्य भवन्त्यास्त्रवहेतवः // 50 // तपस्वी, गुरुजन और प्रतिमाओंकी पूजाके विलोप करनेकी प्रवृत्ति करना, अनाथ, दीन और कृपण पुरुषोंको भिक्षा आदि देने का निषेध करना, अपने आधीन दासी-दास तथा पशु-पक्षियोंका वध करना, बन्ध करना, अन्न-पान रोक देना, उनकी नाक काट देना, कान काट देना, प्रमादसे देवताका दिया हुआ नैवेद्य-प्रसाद ग्रहण करना, तथा धर्म-साधनके निर्दोष उपकरणोंका परित्याग. करना, प्राणियोंकी हिंसा करना, तथा दूसरेके दान, लाभ, भोग और उपभोग आदिमें विन्न करना, ज्ञानका प्रतिषेध करना और धर्ममें विन्न करनेवाले कार्य करना इत्यादि कार्य अन्तराय कर्मके आस्रवके कारण होते हैं // 47-50 // . . आठों कर्मोंमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म तो पापरूप ही हैं। शेष चार कर्मोंमेंसे सातावेदनीय, देव मनुष्यादि, शुभ आयु, उच्चगोत्र और शुभनामकर्म पुण्यरूप हैं और असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नामकर्म और नीचगोत्रकर्म पापरूप हैं।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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