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________________ 216 जैनधर्मामृत भक्ति रखना, 13 आचार्यकी भक्ति करना, 14 अर्हद्भक्ति करना, 15 उपाध्याय-भक्ति करना और 16 प्रवचनमें वात्सल्य रखना, ये सोलह भावना तीर्थकर प्रकृतिके आस्रवके कारण हैं // 41-44 // अब नीच कुलमें उत्पन्न करनेवाले नीचगोत्रकर्मके आस्रवके कारण कहते हैं असद्गुणानामाख्यानं सद्गुणाच्छादनं तथा / स्वप्रशंसाऽन्यनिन्दा च नोचैर्गोत्रस्य हेतवः // 45 // अपनेमें जो गुण नहीं हैं, उनको प्रकट करना, दूसरोंके अवगुणोंको कहना, तथा उनके सद्गुणोंको आच्छादित करना, अपनी प्रशंसा और परकी निन्दा करना, अपनी जाति,कुल आदिका मद करना, पञ्च पापमय प्रवृत्ति रखना इत्यादि कार्य नीचगोत्रके आस्रवके कारण हैं // 45 // अब ऊँच कुलमें उत्पन्न करनेवाले उच्चगोत्रकर्मके आस्रवके कारण कहते हैं नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकः पूर्वस्य च विपर्ययः / उच्चैर्गोत्रस्य सर्वज्ञः प्रोक्ता मात्रबहेतवः // 46 // नम्रवृत्ति रखना, अहंकार नहीं करना, दूसरेके सद्गुणोंको प्रकट करना, अपने अवगुणोंको कहना, पर-प्रशंसा और आत्मनिन्दा करना इत्यादि कार्योंको सर्वज्ञदेवने उच्चगोत्रके आसवका कारण कहा है // 46 // ____ अब मनुष्यके लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य आदिमें विघ्न करनेवाले अन्तरायकर्मके आस्रवके कारण कहते हैं
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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