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________________ नवम अध्याय 215 नहीं करना, और मन, वचन, कायका सरल रखना इत्यादि उत्तम कार्य शुभ नामकर्मके आस्रवके कारण हैं // 40 // विशेष-शुभनाम और अशुभनामकर्मके भेदोंको आगे बन्धतत्त्वके प्रकरणमें बतलाया जायगा। ___शुभनामकर्मके भेदोंमें एक तीर्थंकर प्रकृति भी है, यह वह प्रकृति है, जिसके उदयसे मनुष्य नरसे नारायण हो जाता है, तीर्थकर एवं अर्हन्त पदको प्राप्त होता है और त्रैलोक्यका उद्धार करनेवाले सच्चे धर्मका उपदेश करता है, अतः अब उसी तीर्थंकर प्रकृतिके आस्रवके कारणोंको कहते हैं विशुद्धिदर्शनस्योच्चैस्तपस्त्यागौ च शक्तितः / मार्गप्रभावना चैव सम्पत्तिविनयस्य च // 41 // शीलवतानतीचारो नित्यं संवेगशीलता। ज्ञानोपयुक्तताऽऽभीषणं समाधिश्च तपस्विनः // 42 // वैयावृत्त्यमनिर्हाणिः पड्विधावश्यकस्य च / भक्तिः प्रवचनाचार्यजिनप्रवचनेषु च // 43 // वात्सल्यं च प्रवचने पोडशैते यथोदिताः।. . नाम्नस्तीर्थकरत्वस्य भवन्त्यावहेतवः // 44 // 1 सम्यग्दर्शनकी परम विशुद्धि होना, 2 शक्तिके अनुसार तप करना, 3 शक्तिके अनुसार त्याग (दान) करना, 4 सन्मार्गकी प्रभावना करना, 5 विनयसे सम्पन्न होना, 6 व्रत और शीलोंका निर्दोष परिपालन करना, 7 संसारसे निरन्तर भयभीत रहना, 8 निरन्तर ज्ञानाभ्यास करना और आत्म-ज्ञानमें उपयुक्त रहना, 9 साधुसमाधि करना, 10 तपस्वियोंकी वैयावृत्य करना, 11 सामायिक आदि छह आवश्यकोंका निरन्तर परिपालन करना, 12 प्रवचनमें
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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